Saturday, February 18, 2012
Thursday, February 16, 2012
संचय
धन का संचय बुरा नहीं है किन्तु धन संचय के लिए किसी भी हद को पार कर जाना ज़रूर बुरा है।
पहले तो हम यह संचय विषम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए करते है, फिर परिवार को सुरक्षित रखने के लिए,उसके उपरांत बच्चो की पढाई,फिर मकान,फिर बच्चो की शादी,फिर-फिर-फिर-.........।
परिवार की ज़िम्मेदारी को निभाना ज़रूरी है,किन्तु अपने संस्कार,अपने ईमान को बेचकर उस पैसे से संस्कारवान बच्चे,सुखदायी मकान और शांतिपूर्ण वातावरण निर्मित नहीं किया जा सकता है।
सच में, सभी इस बात को जानते है फिर भी स्वयं को बदलने की कोशिश नहीं करते।
हम अपने बचपन के कष्टों की दुहाई देकर अपने बच्चो को अपने परिवार को अच्छा भविष्य देने की बात कहते है, किन्तु हमारे गलत कार्यकलापो से दुसरो का बचपन उनका परिवार कष्टों को सहने के लिए मजबूर होते है,
क्या उनके बारे में भी कभी हमने सोचा है?
दोस्तों संचय ज़रूर करे लेकिन अपनी ज़रूरतों को सीमित रखकर,अपने खर्चे घटाकर।
जिन पैसो का हिसाब आप अपने परिवार / देश को नहीं दे पाते है, उन पैसो से दुनिया के ऐशो-आराम के संसाधन तो खरीद सकते है पर वास्तविक सुख आपसे काफी दूर हो चुके होते है।
जिसके पास पैसे आते है तो बस आते ही चले जाते है। वह बस -बस बोलते थक जाता है पर पैसे आने नहीं रोक पाता। जिसके पास पैसे नहीं आते वह पूरी ज़िन्दगी पैसो के इंतजार में काट देता है पर उसे पैसो के दर्शन नहीं होते।
बेहिसाब आय का हिसाब यदि अपने बच्चो को नहीं दे पाए तो उनके संस्कारवान / ईमानदार होने की कल्पना करके आप स्वयं को और धोखा मत दीजियेगा। जो आपने बोया है उस फसल को काटना भी आपको ही पड़ेगा।
जो स्वयं नहीं कमा सकते /जिन्हें कमाने का मौका नहीं मिलता वे ही ईमानदारी की बात करते है ? ऐसा सोचकर प्रत्येक बेईमान अपने आपको तसल्ली देता रहता है और सिर्फ और सिर्फ अपने आप को धोखा देते रहता है।
कभी इन बातो को गंभीरता से ज़रूर सोचियेगा।
परिवार की ज़िम्मेदारी यदि हमारे ऊपर है तो समाज की भी ज़िम्मेदारी हमारी ही है।Monday, February 13, 2012
प्रेम
किसी की भी अधिक निकटता उससे हमें प्रेम करने को
मजबूर कर देती है।
प्रेम करना गलत नहीं है किन्तु
ऐसा प्रेम जो मर्यादा तोड़ जाने को बाध्य कर दे ,
दुःख देता है और संकट खड़े करता है।
और बस खो जाने की ओर प्रेरित करता है।
मेरी इस बात से वे प्रेमी जो वर्तमान में किसी के प्रेम में हो
शायद सहमत नहीं होंगे,
परन्तु इस विषय पर ज़रूर विचार करेंगे ऐसी मेरी आशा है।
अक्सर हम सुनते है की प्रेम किया नहीं जाता बस हो जाता है,
किन्तु दोस्तों सच में यदि देखा जाये तो प्रेम होता नहीं है,
हम ही उसे बढ़ाते चले जाते है।
किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अधिक विचार करना,
हमें उससे जोड़ता चला जाता है।
अपने समस्त रिश्ते नाते तोड़कर किसी एक को ही
अपना सब-कुछ मान लेना कितना उचित है,
यह मै आपके विवेक पर छोड़ता हूँ।
Wednesday, February 8, 2012
ज़रुरत
ज़रुरत, इन्सान को कुछ भी करा सकता है।
ज़रुरत सीमित रखे तो ही अच्छे और बुरे की पहचान कर पाएंगे।
जब भी कोई हमें अपना गुलाम बनाना चाहता है,
तो सबसे पहले वह हमारी ज़रूरतों को बढ़ाना शुरू कर देता है
और हम अपनी बढती ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश में
क़र्ज़ और पाप के दलदल में धसते चले जाते है।
तब तक बाजी हमारे हाथ से निकल चुकी होती है
और हम दूसरो के हाथो की कठपुतली बनकर रह जाते है।
सच मानिये, अपनी ज़रूरतों को घटाकर/सीमित करके देखिएगा
धरती स्वर्ग जैसी लगने लगेगी।
ज़रूरतों को घटाने से मेरा तात्पर्य अपनी आय भी घटा लेना नहीं है।
बचत के धन से कितनो ही ज़रूरतमंदो की मदद की जा सकती है।
Sunday, February 5, 2012
विपत्ति
विपत्तियों से घिरा व्यक्ति अपने बचाव के लिए किसी का भी उपयोग कर सकता है।
जैसे पानी में डूब रहा व्यक्ति बचाने वाले को भी अपने साथ डूबा सकता है ,
और वह यह अनजाने में ही कर जाता है।
ठीक उसी प्रकार संकटग्रस्त व्यक्ति अपने बचाव के लिए किसी को भी अपनी ढाल बना सकता है,
और अनजाने में ही सही दूसरो को अपने साथ संकट में डाल देता है।
जब करो या मरो की स्थिति में कोई आ जाता है तो फिर उसे अपने बचाव के अलावा और कुछ भी सही नहीं लगता है । आप कह सकते है कि वह स्वार्थी हो जाता है, अपनी जान बचाने के लिए।
चाहे उसके ऐसा करने से किसी और की जान ही क्यों न चली जाये।
दोस्तों दूसरो की मदद ज़रूर करे किन्तु पहले स्वयं को सुरक्षित करना न भूले।
Subscribe to:
Posts (Atom)